जातिवाद पर निबंध : अर्थ, कारण, दुष्परिणाम एवं हानियाँ | Essay On Casteism In Hindi

Essay On Casteism In Hindi

इस लेख में हम जातिवाद पर निबंध को बिल्कुल विस्तार से देखेंगे। अगर आप 10वीं या 12वीं कक्षा में हैं, तो यह निबंध आपके लिए काफी महत्वपूर्ण एवं उपयोगी साबित हो सकता है, क्योंकि बोर्ड परीक्षाओं में हिंदी विषय में निबंध पूछे जाते हैं जिसमें जातिवाद पर भी निबंध पूछा जा सकता है। इसलिए यदि आप इस निबंध को अच्छे से पढ़े रहेंगे, तो आप अपनी बोर्ड परीक्षा में हिन्दी विषय में अच्छे अंक प्राप्त कर पाएंगे। 

और अगर आप छोटी कक्षा के छात्र हैं, तो भी यह निबंध आपके लिए बहुत ही उपयोगी है क्योंकि अक्सर छोटी कक्षा के छात्रों को उनके स्कूल से निबंध लिखने का होम वर्क मिलता है और अगर आप भी उन छात्रों में से एक हैं जिन्हें Jativad Par nibandh लिखने का होमवर्क मिला है, तो आप इस आर्टिकल की मदद से अपना होमवर्क बहुत ही आसानी से पूरा कर सकते हैं। 

साथ ही अगर आप किसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, तो आपके लिए भी जातिवाद पर निबंध काफी फायदेमंद हो सकता हैं। क्योकी इस निबंध में हम जातिवाद से सम्बंधित बहुत से ऐसे प्रश्नो का समझेंगे, जो प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये इम्पोर्टेन्ट है जैसे - जातिवाद क्या है, जातिवाद का अर्थ, भारत में जातिवाद एक समस्या, जातिवाद के कारण, जातिवाद के दुष्परिणाम, जातिवाद की विशेषताएँ, जाति प्रथा से होने वाली हानियाँ, भारत में जातिवाद आदि। जातिवाद से जुड़े इस प्रकार के प्रश्नों को इस निबंध में हम बिल्कुल विस्तार से समझेंगे। इसलिए आप इस लेख को शुरू से अन्त तक जरुर पढ़े, तो चलिए अब हम Jativad par nibandh को विस्तारपूर्वक देखें।


जातिवाद पर निबंध हिन्दी में 2023 (Jativad Par Nibandh)

प्रस्तावना -- प्रत्येक समाज में सदस्यों के कार्य और पद (Role and Status) को निश्चित करने के लिए और सामाजिक नियन्त्रण के लिए कुछ सामाजिक व्यवस्थाएँ की जाती हैं। संसार के प्रत्येक समाज में यह व्यवस्थाएँ किसी-न-किसी रूप में पायी जाती हैं। भारतीय (विशेषकर हिन्दू समाज की) वर्ण-व्यवस्था उसी समाजिक व्यवस्था की एक प्रमुख संस्था है। वर्ण व्यवस्था का स्वरूप विकृत होकर जाति प्रथा बन गया है। हम जब जाति'प्रथा, जातिवाद अथवा भारतीय जाति प्रथा आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तब हमारा तात्पर्य हिन्दू समाज में प्रचलित जाति-व्यवस्था से होता है। भारतवर्ष जाति-व्यवस्था का भण्डार है। भारत में मुसलमान और ईसाई सहित शायद ही कोई ऐसा समूह हो, जो जाति-प्रथा न मानता हो अथवा उसके द्वारा ग्रस्त न हो।

अत्यन्त प्रचीन काल में हमारे देश में गुण और कर्म के अनुसार वर्ण-व्यवस्था का निर्धारण किया गया था और उसे सामाजिक कल्याण के लिए अत्यन्त उपयोगी और आवश्यक समझा गया था। उस समय वर्ण का क्या अभिप्राय था तथा उस व्यवस्था का रूप क्या था ? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। इतना सुनिश्चित है कि भारत की वर्णाश्रम व्यवस्था का निर्माण व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए किया गया था। भ्रम एवं कर्त्तव्य का विभाजन उसका प्रमुख उद्देश्य था। मनुस्मृति में प्रत्येक वर्ण के कर्त्तव्यों का निरूपण उपलब्ध होता है। न तो वर्णों के अधिकारों का विधान है और न उनके सापेक्ष महत्त्व की ऊँच-नीच की चर्चा ही की गयी है। श्रम विभाजन को लक्ष्य करके बनाई गई व्यवस्था का समर्थन आधुनिक काल में भी कई विचारकों द्वारा किया गया है।

समय के प्रवाह के साथ वर्ण व्यवस्था का रूप परिवर्तित हो गया और उसने जाति-व्यवस्था अथवा जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया। विभिन्न व्यवसायों के आधारों पर अनेक जातियाँ उप-जातियाँ बन गयी हैं। इस व्यवस्था में अनेक दोष भी आ गये हैं, उसने जातिवाद को प्रश्रय दे दिया है, उसमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की भावना जैसी अनेक बुराइयों का समावेश हो गया है। आज तो 'गौड़ों में भी और' अथवा 'आठ कनौजिया नौ चूल्हे' वाली कहावत चरितार्थ होती है। भारत में पायी जाने वाली जातियों एवं उप-जातियों की संख्या तीन हजार से कुछ अधिक ही है। यह व्यवस्था वस्तुतः भारतीय समाज के ऊपर एक कलंक के रूप में बहुचर्चित वस्तु बन गयी है। 

स्वतन्त्रता के पश्चात् जातिवाद एक अभिशाप के रूप में उभरकर आया है। चुनावों के समय इसका घृणित रूप दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको जातिवाद के विरुद्ध घोषित करता है, जातिवाद को पेट भरकर कोसता है, परन्तु वोट प्राप्त करते समय वह जाति-बिरादरी के नाम की दुहाई अवश्य देता है। चुनाव हेतु उम्मीदवार का चयन इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि सम्बन्धित चुनाव क्षेत्र में किस जाति के कितने वोट हैं तथा जाति-बिरादरी की दुहाई देकर कितने वोट प्राप्त किये जा सकते हैं? जातिवाद के नाम पर निर्वाचित व्यक्ति अपने साथ जातिवाद का झोला - चीगा लेकर जाता है। वह जातिवाद के आधार पर अपने आदमियों का भला करना चाहता है, उसके प्रतिनिधित्व की माँग करता है आदि स्वतन्त्रता के पहले जो जाति-प्रथा थी, वह अब जातिवाद बन गयी है। उसने सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता को जन्म दिया था। इसने व्यक्ति-स्तर की अस्पृश्यता की प्रतिष्ठा की है। जातियाँ समाप्त हो रही हैं, जातिवाद पनप रहा है। आरक्षण के नाम पर जातिवाद की जड़ें दिनोदिन गहरी होती जा रही हैं।

जाति व्यवस्था का सामान्य परिचय

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत जाति-व्यवस्था (प्रथा) व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निर्धारित करती है और बहुत कुछ उसके व्यवसाय पर भी निश्चित करती है।जाति की विभिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की गयी हैं और उसको स्पष्ट करने के लिए अनेक व्यख्याएँ प्रस्तुत की गयी है।

निष्कर्ष रूप में इस व्यवस्था के स्वरूप को इस प्रकार समझा जा सकता है- “जाति जन्म के आधार पर सामाजिक संस्तरण और खण्ड-विभाजन की वह गतिशील व्यवस्था है जो खाने-पीने, विवाह, पेशा और सामाजिक सहवासों के सम्बन्ध में अनेक या कुछ प्रतिबन्धों को अपने सदस्यों पर लागू करती है।" (N.K. Dutta. Origin and Growth of Castes in India)

उक्त उद्धरण में 'गतिशील' शब्द विशेष महत्त्वपूर्ण है। धन एवं प्रतिष्ठा के बल पर कोई भी व्यक्ति अपने ऊपर लगाये जाने वाले जातीय प्रतिबन्धों को अस्वीकार कर देता है एवं जाति बदल देता है तथा अपने रहन-सहन को बदल देता है। इसी प्रकार यह व्यवस्था गतिशील है। अन्तिम रूप से जाति प्रथा की कोई परिभाषा ही प्रस्तुत नहीं की जा सकती है।

जाति प्रथा की विशेषताएँ

विभिन्न विचारकों ने जाति प्रथा की विशेषताओं तथा उसके कार्यों के सन्दर्भ में अपने विचार व्यक्त किये हैं। सारांश रूप में वे निम्नलिखित प्रकार हैं 

(1). जाति-प्रथा का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को संगठित करना है। विदेशियों के अनेक आक्रमणों के बावजूद इस प्रथा ने हिन्दू समाज में धार्मिक और सामाजिक स्थिरता को बनाये रखा है। 

(2). गिलबर्ट के शब्दों में, “भारतवर्ष ने जातियों की एक व्यवस्था विकसित की है जो सामाजिक समन्वय की एक योजना के रूप में है और संघर्षरत प्रादेशिक राष्ट्रों की यूरोपीय व्यवस्था की तुलना में खरी उतरती है।" 

(3). यह प्रथा हिन्दू समाज का खण्डात्मक विभाजनकरती है। इसके अनुसार , प्रत्येक खण्ड के घटकों की स्थिति, पद, स्थान और कार्य भी सुनिश्चित हो जाते हैं। डॉ० जी० एस० घुरिये के अनुसार इस खण्ड-विभाजन-व्यवस्था का तात्पर्य इस प्रकार है- "जाति प्रथा की आबद्ध समाज में सामुदायिक भावना सीमित होती है और वह समग्र समाज द्वारा न होकर एक समुदाय विशेष मात्र जाति के सदस्यों के प्रति सीमित रहती है - इसके द्वारा अपनी जाति के प्रति उस जाति विशेष के सदस्यों का कर्त्तव्यबोध होता है। इस कर्त्तव्यबोध के साथ कतिपय नियम जुड़े रहते हैं। यह बोध उन्हें अपने पर और निर्धारित कार्यों के प्रति दृढ़ बनाये रखता है। यदि कोई इसका उल्लंघन करता है तो उसकी निन्दा की जाती है, कभी उसको जाति-बहिष्कृत भी कर दिया जाता है।" 

(4). इस खण्डनात्मक विभाजन की व्यवस्था में ऊँच-नीच का एक संस्तरण (Hierarchy) होता है और इसमें प्रत्येक जाति का स्थान अथवा सामाजिक स्तर जन्म भर के लिए निश्चित हो जाता है। इस संस्तरण का क्रम इस प्रकार है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह क्रम ब्राह्मणों से आरम्भ होकर क्रमशः नीचे की ओर चलता जाता है। यह संस्तरण जन्म पर आधारित होने के कारण बहुत कुछ स्थिर एवं दृढ़ है। ब्राह्मण से लेकर शूद्र वर्गों के मध्य अनेक जातियाँ हैं, जो परस्पर श्रेष्ठता-निम्नता स्थापित करती रहती हैं। शहरों अथवा किसी दूरस्थ स्थान पर जो लोग एक-दूसरे को गहराई से नहीं जानते हैं, वहाँ लोग अपनी जाति सम्बन्धी वास्तविकता छिपाकर अन्य जाति वालों के साथ विवाह सम्बन्ध करने का अवसर निकाल लेते हैं।

(5). जाति प्रथा ने समाज में सभी आवश्यक कार्यों को विभिन्न जातियों में विभाजित कर दिया है। अध्यापन से लेकर कूड़ा उठाने तक के काम निश्चित हैं, कर्म-फल के सिद्धान्त में विश्वास होने के कारण सब लोग अपना - अपना काम निष्ठापूर्वक करते हैं। प्रत्येक जाति का मनुष्य कोई भी काम व्यक्ति विशेष अथवा जाति-विशेष के लिए न करके समग्र समाज के लिए करता है।

(6). प्रत्येक जाति के घटकों की शिक्षा की सीमाएँ एवं औद्योगिक प्रशिक्षण की सम्भावनाएँ सुनिश्चित होती हैं।

(7). इस व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक जातियों में अपने पृथक देवी-देवता तथा भिन्न धार्मिक विधियाँ होती है। श्री ए० आर० देसाई ने ठीक ही लिखा है, "जाति ही समाज के धार्मिक जीवन में अपने सदस्य की स्थिति को निश्चित करती है।" 

(8). आधुनिक काल में राजनीतिक क्षेत्र में जातिगत सुरक्षा एवं संरक्षण की पद्धति प्रचलित हो गयी है। प्रत्येक जाति चुनावों में अपनी जाति के प्रत्याशियों की सहायता करती है। इस प्रकार निर्वाचित होने वाले सदस्य अपनी जाति के हितों की रक्षा करते हैं। यह दूसरी बात है कि इस पद्धति ने 'जातिवाद' के कोढ़ को जन्म दिया है, जो राष्ट्रीय जीवन को क्रमशः क्षरित कर रहा है।

जाति प्रथा से होने वाली हानियाँ

जाति प्रथा के कारण दो बहुत बड़े अहित हुए हैं। एक तो, ऊँच-नीच की भावना पनपी है और दूसरे, हमारे समाज में छुआछूत की दूषित परम्परा चल पड़ी है। ये दोनों कुप्रथाएँ नैतिक दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक और राष्ट्रीय दृष्टि से भी विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। इनके कारण हिन्दू समाज का विघटन हुआ है तथा राष्ट्रीय भावना का क्षरण हुआ है। प्रतिवर्ष हजारों शूद्र अथवा हरिजन समाज में सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागकर अन्य धर्मों में (इस्लाम, ईसाई धर्म अथवा बौद्ध धर्म में) दीक्षित हो जाते हैं। धर्म-परिवर्तन की यह प्रक्रिया हिन्दू समाज को खोखला और क्षीणकाय बना रही है। समाज में द्वितीय श्रेणी के नागरिक की भाँति जीवन व्यतीत करने को विवश हरिजन अब यह भी कहने लगे हैं। वे हिन्दू हैं ही नहीं। देहुली का दौरा करके लौटकर आने के बाद श्रीमती गांधी ने जो वक्तव्य दिया या उसका एक वाक्य ऐसा था जो हरिजनों को अहिन्दू घोषित करता है – “यह झगड़ा हिन्दुओं और हरिजनों के बीच का था।"

पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Discovery of India' में लिखा है कि जाति प्रथा से सांस्कृतिक और सामाजिक प्रगति तो हुई परन्तु राजनीतिक सफलता के अभाव में विदेशियों की विजय को सरल कर दिया। सन् 1947 में राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी वह हमारी राजनीतिक सफलता में बाधक बनी हुई है। हमारे राजनीतिक नेता प्रत्येक सामाजिक बुराई और पिछड़ेपन के लिए जाति प्रथा को बुरा-भला कहते हैं, परन्तु अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए जातिवाद को उभारते हैं। वोट की राजनीति से जाति प्रथा के तलछट को अभूतपूर्व रूप में उजागर किया है। हम जाति-प्रभा की राख पर अपने जनतन्त्र की नींव तो रखना चाहते हैं, परन्तु साथ साथ यह भी चाहते हैं कि जाति-प्रथा का जहर नष्ट न होने पाये। राजनीति के क्षेत्र की यह विषम मान्यता हमारी प्रगति के पथ की सबसे बड़ी बाधा बन गयी है।

लोकतन्त्रीय व्यवस्था का यह मूल मन्त्र है। कि निर्वाचन सर्वथा स्वतन्त्र, कार्यक्रमनिष्ठ और भेद-भावरहित हो, परन्तु हमारे देश के कर्णधारों ने केन्द्रीय स्तर से लेकर नीचे ग्राम पंचायतों के स्तर तक के समस्त निर्वाचनों का आधार जातिवाद बना रखा है। इसके अनुसार दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। सरकारी नियुक्तियों में शिक्षा संस्थाओं के प्रवेश में, छात्रवृत्तियों में सर्वत्र आरक्षण एवं पक्षपात की नीतियाँ बद्धमूल हुई हैं और हो रही हैं। जाति-प्रथा को सामाजिक अभिशापों के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए वोटों की शतरंज खेलने वाले राजनीतिक नेता तथाकथित निम्न एवं दलित वर्गों को सवर्ण हिन्दुओं के विरुद्ध भड़काते रहते हैं।

विष वपन की इस प्रक्रिया द्वारा वर्ग-विग्रह के बीज बोकर सामाजिक विघटन किया जा रहा है। अभी हाल में घटित होने वाली घटनाएँ किसी सीमा तक इस प्रकार के निष्कर्ष प्रस्तुत कर रही हैं कि लूटमार, हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराध भी जातिवाद के आधार पर किये जाने लगे हैं और सरकार भी अपनी वोट की राजनीति के पोषण के लिए सहायता और सुरक्षा की योजनाओं को जातिवाद के आधार पर कार्यान्वित करने का कार्यक्रम तैयार करना चाहती है।

जाति प्रथा का उन्मूलन

नवजागरण, शिक्षा का प्रसार, राजनीतिक चेतना, आर्थिक उन्नति आदि के फलस्वरूप जाति-प्रथा की व्यवस्थाएँ स्वतः शिथिल होती जा रही हैं। सरकारी तौर पर भी हरिजनों को विशेष अधिकार, आरक्षण, संरक्षण प्रदान करके उनको सामाजिक समानता की ओर ले जाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। आधुनिक प्रगतिशील वातावरण के फलस्वरूप पारस्परिक सम्पर्क के अवसरों में वृद्धि हुई है, खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल हुए हैं, विवाहादि सम्बन्धों की मान्यताएँ बदल गयी हैं और अन्तर्जातीय विवाह के प्रति दृष्टिकोण में उदारता आने लगी है। औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप व्यवसायों की सुविधाएँ बढ़ी हैं और इस संदर्भ में लगे हुए प्रतिबन्ध तेजी के साथ समाप्त हो रहे हैं, अब शर्मा लौंड्री, गुप्ता बूट हाउस, वाल्मीकि भोजनालय प्राय: देखने को मिल जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि स्वाभाविक प्रक्रिया तथा सरकारी प्रयत्नों के फलस्वरूप जाति-प्रथा बहुत - कुछ शिक्षित हो गयी है और हो रही है। हमारे राजनीति के व्यवसायी नेतागण यदि वोट की राजनीति से खेलना बन्द कर दें तथा जातिवाद के नाम पर होने वाली पदयात्राएँ नियन्त्रित हो तो जाति-प्रथा से उत्पन्न होने वाली बुराइयों को दूर किया जा सकता है।

निष्कर्ष

इसमें कोई सन्देह एवं विवाद नहीं है कि जाति-प्रथा में अनेक दोष आ गये हैं और उनके कारण सामाजिक प्रगति में बाधाएँ आई हैं और आती रहती हैं, परन्तु जाति-प्रथा को समाप्त कर देने मात्र से ही समस्त सामाजिक सांस्कृतिक अभिशापों से हमारी मुक्ति सम्भव नहीं होगी। हमारे राजनीति-जीवी नेता जाति-प्रथा के विरोध की ढाल के पीछे जातिवाद को प्रश्रय दे रहे हैं। इससे वर्ग-विग्रह को प्रोत्साहन प्राप्त हो रहा है और एक प्रकार के गृहयुद्ध को आमन्त्रण दिया जा रहा है। मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने की घोषणा के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाली घटनाएँ इसका प्रमाण हैं। यह तो सुनिश्चित है कि वर्तमान रूप में जाति प्रथा का कोई भविष्य नहीं रह गया है, परन्तु यह भी समझ लेना चाहिए कि इससे मुक्ति पाने के लिए राजनीतिक जातिवाद का रास्ता न तो उपयुक्त है और न इच्छित फल ही देने वाला है।

जातिवाद पर निबंध Pdf

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अंतिम शब्द

यहा पर इस लेख में हमने Jativad Par Nibandh को विस्तार से समझा। यह निबंध कक्षा 10वीं, 12वीं में पढ़ रहे और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिये काफी उपयोगी है। यहा पर शेयर किया गया है Essay On Casteism In Hindi आपको कैसा लगा, कमेंट के माध्यम से आप अपनी राय हमारे साथ जरुर साझा करें। हम आशा करते है की आपको यह निबंध जरुर पसंद आया होगा और हमे उमीद है की इस लेख की सहायता से जातिवाद क्या है और जातिवाद पर निबंध कैसे लिखें आप बिल्कुल अच्छे से समझ गए होंगे। यदि आपके मन में इस निबंध से सम्बंधित कोई सवाल है, तो आप नीचे कमेंट करके पुछ सकते हैं। और साथ ही इस निबंध को आप अपने सभी मित्रों के साथ शेयर भी जरुर करें।

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